जैतापुर संयंत्र के ख़िलाफ़ मुखर होते स्वर

बीबीसी समाचार से साभार 

जैतापुर में बनने वाले 9900 मेगावॉट परमाणु ऊर्जा संयंत्र के ख़िलाफ़ आंदोलन तेज़ होता जा रहा है. स्थिति को देखते हुए सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई है.

ये संयंत्र सरकारी कंपनी न्यूक्लियर पॉवर कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड फ़्रांस की कंपनी अरेवा के सहयोग से बना रही है. कहा जा रहा है कि पूरा हो जाने पर ये एशिया का सबसे बड़ा परमाणु ऊर्जा संयंत्र होगा. पुलिस चेक पोस्टों को पार करने के बाद हम मुश्किल से प्रस्तावित संयंत्र की जगह पर पहुँच पाए. अरब सागर के किनारे स्थित इस जगह पर अभी कुछ मशीनों की मदद से मिट्टी के परीक्षण का काम किया जा रहा है. इस संयंत्र को लेकर शिकायतें कई हैं- परमाणु ऊर्जा बिजली पाने का एक ख़तरनाक तरीका है, रेडियोधर्मी कूड़े को संभालकर रखने का तरीका स्पष्ट नहीं है, यहाँ से पैदा बिजली महंगी होगी, फ्रेंच कंपनी अरेवा का सेफ़्टी रेकॉर्ड संदिग्ध है और पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव पर तैयार की गई रिपोर्ट नाकाफ़ी है. संयंत्र की प्रस्तावित जगह से थोड़ी ही दूर पर मछुआरों की बस्ती साकरी नाटे है. करीब साढ़े पाँच हज़ार लोगों वाले इस गाँव की ज़िंदगी किसी न किसी तरह समुंद्र से जुड़ी हुई है. औसतन हर परिवार का गुज़ारा महीने के 10 से 12 हज़ार रुपए में चलता है. यहाँ लोगों में गुस्सा है. वो कहते हैं, ''चाहे जो हो जाए वो संयंत्र को नहीं बनने देंगे, संयंत्र बनेगा तो उसमें से गर्म पानी और रेडियोधर्मी कूड़ा समुद्र में बहा दिया जाएगा, जिससे मछलियाँ खत्म हो जाएंगी और उनकी जीविका पर असर पड़ेगा. साथ ही डर ये भी कि उन्हें एक बड़े इलाके में मछलियाँ पकड़ने की इजाज़त भी नहीं मिलेगी.''

लोगों में गुस्सा
हम जब यहाँ पहुँचे तो बस्ती के मध्य में करीब 250-300 लोग जमा हो गए. उनमें ज़्यादातर महिलाएँ थीं क्योंकि उनके पति मछली पकड़ने गए हुए थे. उनके हाथ में एक बैनर था जिसपर लिखा था कि वो परमाणु ऊर्जा के ख़िलाफ़ हैं.


स्थानीय निवासी अमजद बोरकर पूछते हैं, ''अगर गर्मी और सर्दी ज़्यादा होती है, तो पानी बदलने कारण हम मछली नहीं मिलती. अगर संयंत्र से गरम पानी निकलेगा तो हमें मछली कहाँ से मिलेगी?'' गाँव की रहने वाली शमशाद इनायत के पाँच बच्चे हैं. तेज़ आवाज़ में वो पूछती हैं, ''आने वाले दिनों में अगर बच्चे टेढ़े-मेढ़े पैदा हुए तो हम क्या करेंगे. मछली के बिना हम ज़िंदा नहीं रह सकते. जान दे देंगे लेकिन संयंत्र नहीं बनने देंगे. हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.'' एक परेशान मछुआरे ने हमें बताया, ''हमारे मछुआरों ने बैंकों से कर्ज़े लिए है, अपने गहने बैंकों में रखे हैं ताकि वो मछली पकड़ने के लिए नाव और जाल खरीद सकें. अगर मछली नहीं होगी तो वो ये कर्ज़े कैसे लौटाएंगे.'' पास ही खड़ी डॉक्टर नाज़रीन का कहना था, ''मनमोहन सिंह और सरकार के लिए हमारा संदेश है कि अपने गाँव में हमें ये संयंत्र नहीं चाहिए. अगर आपको बनाना है तो आप इसे दिल्ली में ले जाकर बनाइए, हमारे गाँव में नहीं.'' हालांकि यहाँ ये बतातें चलें कि संयंत्र को बनने में 17-18 साल तक लग सकते हैं.

"मनमोहन सिंह और सरकार के लिए हमारा संदेश है कि अपने गाँव में हमें ये संयंत्र नहीं चाहिए. अगर आपको बनाना है तो आप इसे दिल्ली में ले जाकर बनाइए, हमारे गाँव में नहीं."

             -डॉक्टर नाज़रीन

 सरकार की चिंता मछुआरों के विरोध तक ही सीमित नहीं है. जिन करीब 2200 लोगों की ज़मीनें सरकार ने अधिगृहित की है, उनमें से 100 के करीब लोगों ने ही मुआवज़ें स्वीकार किए हैं. आरोप लग रहे हैं कि उन्हें अपने ज़मीन के बहुत कम पैसे मिले हैं. लोगों को स्थायी नौकरियाँ देने की पेशकश भी बहुत काम नहीं आ रही है. एक तरफ़ यहाँ पर्यावरण मंत्रालय ने 938 हेक्टेयर में फैले इस संयंत्र को कई शर्तों के साथ हरी झंडी दिखा दी है, वहीं प्रशासन पर पारदर्शिता नहीं बरतने के आरोप लग रहे हैं.

स्थानीय कांग्रेस नेता एन गनपतराव की बातों को सुने तो ज़मीनी हालात बेहतर समझ में आते हैं. वो कहते हैं, ''मैं इलाके से तीन बार एमएलए चुनकर गया हूँ, लेकिन इस संयंत्र के बारे में महाराष्ट्र सरकार में से किसी ने भी मुझसे संपर्क नहीं किया. यहाँ के पत्रकारों को जहाँ ऐसे संयंत्र चल रहे हों, जैसे ट्रांबे हो, तारापुर हो, भेजा जाना था, लेकिन जिन्हें भेजना चाहिए था, उन्हें नहीं भेजा गया. अगर स्थानीय लोगों को ऐसे संयंत्र के बारे में डॉक्युमेंट्री फ़िल्म दिखाई जाती तो लोग इतने खिलाफ़ नहीं होते.''
भारत के कुल बिजली उत्पादन में परमाणु ऊर्जा की भूमिका मात्र तीन प्रतिशत की है लेकिन अगले 10 सालों में इसे दोगुना करने की योजना है. सरकार आंकड़े दे रही है कि अगर देश की अर्थव्यवस्था को अगले दशक में तेज़ी से बढ़ना है तो बिजली उत्पादन में हर साल सात प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की ज़रूरत है.

चिंताएँ
लेकिन चिंता पर्यावरण के लिहाज़ से संवेदनशील इस इलाके पर पड़ने वाले असर को लेकर भी है क्योंकि यहाँ जैतापुर आणविक संयंत्र के अलावा कोयले से चलने वाले दूसरे संयंत्रों की भी योजना है. रत्नागिरी ज़िले के अलावा सिंधुदुर्ग और रायगढ़ ज़िलों में कई खनन परियोजनाओं, बंदरगाहों, और प्रदूषण फैलाने वाली परियोजनाओं पर काम चल रहा है. चिंता है कि इन सबसे यहाँ के मैनग्रोव्स, समुद्री जीव-जंतु और जैव विविधता पर भी असर पड़ेगा.

जैतापुर परमाणु संयंत्र फ़्रांस की कंपनी अरेवा के सहयोग से तैयार किया जा रहा है
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इन सभी परियोजनाओं के पश्चिमी घाट्स पर होने वाले असर पर शोध करने को कहा है. उधर रत्नागिरी ज़िले में कार्यरत न्यूक्लियर पॉवर कार्पोरेशन में कार्यरत वरिष्ठ इंजीनियर जगदीश एचटी प्लांट पर लग रहे आरोपों को खारिज करते हैं. वो कहते हैं, ''ये संयंत्र पर्यावरण के अनुकूल है. पानी का तापमान पाँच डिग्री तक बढ़ सकता है. फ़िशरीज़ कॉलेज के शोध के मुताबिक पाँच डिग्री तापमान बढ़ने से मछली नहीं मरेगी. मछली खाने से भी किसी को कोई समस्या नहीं होगी. अगर किसी पर असर होगा, तो वो हमें होगा क्योंकि हम तो अंदर काम कर रहे होंगे.'' उधर कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर एस बी कादरेकर इलाके की दूसरी परियोजनाओं से भी चिंतित हैं. वो कहते हैं, ''करीब 150 किलोमीटर में इतने संयंत्र और परियोजनाओं पर काम चल रहा है कि पूछना लाज़मी है कि क्या इस इलाके में इतने संयंत्रों और परियोजनाओं की ज़रूरत है? अब जो संयंत्र यहाँ बन गए हैं, उनके अलावा और दूसरे संयंत्र यहाँ नहीं बनने चाहिए.''
बड़े प्रोजेक्ट और उनका लोगों पर क्या असर होगा, इस पर सालों से बहस चल रही है. एक तरफ़ जहाँ अधिकारी दृढ़ होकर कह रहे हैं कि वक्त आ गया है कि इस इलाके का कायाकल्प हो और देश विकास एक नए युग में प्रवेश करे. आलोचकों का कहना है कि उन्हें चिंता इस बात की है कि विकास के होड़ में ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के विचारों और भावनाओं को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है.

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