परम ऊर्जाः चरम विनाश



परमाणु आयोग की योजना इस अत्यंत जहरीले कचरे को कांच में बदल कर एक ही जगह स्थिर कर देने की है। इस कांच बने कचरे को विशेष प्रकार के शीतगृह में 20 साल तक रखा जाएगा। फिर अंत में उसे किसी ऐसी जगह रखना होगा जहां पानी, भूचाल, युद्ध या तोड़-फोड़ की कोई भी घटना हजारों साल तक उसे छेड़ न सके।
परमाणु समझौते को लेकर देश में चल रही बहस में ‘बिजली और बम’ की चिंता प्रमुख है। कहा जा रहा है कि अमेरिका के साथ हुए समझौते ने हमारे लिए फिर से परमाणु बिजली बनाने का दरवाजा खोल कर हमारा बम बनाने का रास्ता बंद कर दिया है। लेकिन देश में कुछ अपवाद छोड़ दें तो किसी ने भी परमाणु बिजली पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया है। आज दो-चार पीढ़ियों को कोयले के मुकाबले बेहद साफ सुथरी बिजली, प्रकाश देने के आश्वासन पर यह आने वाली सैकड़ों पीढ़ियों को भयानक अंधकार में धकेल देगी। अभी तो हम प्लास्टिक का कचरा भी ठिकाने नहीं लगा पाए हैं, परमाणु बिजली के भयानक कचरे को भला कैसे संभाल पाएगें। आज से कोई 21 वर्ष पहले लिखा यह लेख आंकड़ों के हिसाब से पुराना, अधूरा भले ही हो, परमाणु ऊर्जा के खतरों पर एकदम नया प्रकाश डालता है।

सन् 1945 में श्री होमी भाभा ने देश के लिए ‘असीम’ परमाणु ऊर्जा की संभावना का संकेत दिया था। तभी से इस संभावना को सच करने का सपना शुरू हुआ। आज देश में कोई अरबों रुपयों का परमाणु साम्राज्य फैला हुआ है, जिसमें यूरेनियम की खदान, ईंधन निर्माण के कारखाने, भारी पानी संयंत्र, परमाणु बिजली घर और काम आ चुके ईंधन को फिर से उपचारित करने के संयंत्र आदि शामिल हैं। देश के पांचवें परमाणु रिएक्टर का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि, “कुछ राष्ट्र हमें प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में मजबूत नहीं बनने देना चाहते थे... पर यह सफलता हमारे स्वावलंबी होने के संकल्प का प्रमाण है।” मद्रास एटमिक पावर प्रोजेक्ट की उस पहली इकाई के 90 प्रतिशत कलपुर्जे देशी बताए गए थे।

परमाणु ऊर्जा आयोग एक ऐसा सरकारी संगठन है, जिसे धन की कमी कभी नहीं पड़ी। हर एक पंचवर्षीय योजना में ऊर्जा विभाग के हिस्से का 2 से 5 प्रतिशत तक इस आयोग को जाता रहा है। केंद्र सरकार के सालाना बजट में ऐसे शोध और विकास कार्य के लिए रखी जाने वाली कुल राशि का भी कोई 15 से 25 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा को दिया जाता है।

परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को बल पहुंचाने वाले अनेक सहायक संगठन देश भर में फैले हुए हैं। सबसे पुराना और अत्यंत गौरवशाली माना गया परमाणु संस्थान ट्रांबे का भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र है। यह देश में हल्के और भारी पानी रिएक्टरों के शोध का संस्थान है। यहां से अन्य कोई शोध-रिएक्टरों का संचालन भी होता है। देश का दूसरा परमाणु अनुसंधान केंद्र मद्रास के पास कलपक्कम का ‘रिएक्टर रिसर्च सेंटर’ है, जिसने मुख्य रूप से फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।

यूरेनियम का खनन बिहार के सिंहभूम के पास जादूगोड़ा में भारतीय यूरेनियम निगम करता है। खदान और उसकी सहायक मिलों की क्षमता रोजाना 1,000 टन यूरेनियम को उपचारित करने की है। निगम नखापहाड़ और तुरमडीह में दो और खदानें जल्दी ही शुरू करने की तैयारी कर रहा है। ये दोनों जमशेदपुर के पास हैं। इन पर कोई 100 करोड़ रुपए लगाने वाले हैं। इनसे नए परमाणु बिजली घरों के लिए ईंधन की आपूर्ति हो सकेगी। खदान से निकले यूरेनियम को हैदराबाद के पास बने परमाणु ईंधन समवाय को भेजा जाता है, जहां कोटा और कलपक्कम के परमाणु रिएक्टरों के लिए ईंधन की छड़ें बनाने के लिए उसे तोड़कर टिकियां बनाई जाती हैं और फिर उन्हें जिर्कोलॉय ट्यूबों में भरा जाता है। जिर्कोलॉय का निर्माण केरल से मंगाए गए जिरकोनियम रेत से किया जाता है। तारापुर के हल्के पानी के रिएक्टरों के लिए परिष्कृत यूरेनियम बाहर से आता है और यहां उसे तोड़ा जाता है।

तारापुर के रिएक्टरों को छोड़कर बाकी सभी कार्यरत और निर्माणाधीन रिएक्टर ‘केंडु’ (केनेडियन ड्यूटेरियम टाईप) नमूने के हैं। ये भारी पानी का उपयोग करते हैं। इनमें खासी पूंजी लगती है। फिर भी परमाणु ऊर्जा आयोग ने केंडु रिएक्टर ही पसंद किए हैं। उसमें प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन के रूप में काम आता है और इसका निर्माण देश में ही किया जा सकता है। इससे विदेशों से ईंधन मांगने की झंझट से छुटकारा मिल सकता है और उस अंतर्राष्ट्रीय दबाव से भी मुक्ति मिल सकती है, जिसका सामना तारापुर के परिष्कृत यूरेनियम ईंधन के मामले में करना पड़ा है।

लेकिन यह उपाय तभी सफल होगा जब देश पर्याप्त भारी पानी तैयार कर ले। आज तीन जगह-नांगल (14 टन), वड़ोदरा (67 टन) और तूतिकोरिन (71 टन) में भारी पानी संयंत्र हैं, जिनकी कुल स्थापित क्षमता 150 टन सालाना की है। कोटा में (100 टन) औ तलसचर (62 टन) में दो और संयंत्र लगाने की तैयारी हो रही है। इन पांच संयंत्रों पर देश ने 220 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। थाल (110 टन) तथा मनुगुरु (185 टन) में दो और बड़े संयंत्र तैयार हो रहे हैं, जिन पर क्रमशः 188 करोड़ और 422 करोड़ रुपए खर्च होंगे। ऐसा ही एक तीसरा संयंत्र हजीरा में भी स्थापित करने की बात सोची जा रही है।

इस तरह देश के परमाणु बिजली कार्यक्रम का मूल आधार भारी पानी बनता जा रहा है। कोटा के संयंत्र के सिवाय बाकी सभी संयंत्र विदेशी ठेकेदारों की मदद से बने हैं। नांगल का निर्माण पश्चिम जर्मनी के ठेकेदारों ने किया था। वड़ोदरा और तुतिकोरिन के संयंत्र स्विट्जरलैंड की एक तथा फ्रांस की दो कंपनियों के मिले-जुले दल ‘गेलप्रा’ ने तैयार किए थे। वड़ोदरा, तूतिकोरिन और तलचर के संयंत्र अमोनिया-हाइड्रोजन की अदला-बदली वाली प्रक्रिया से और आगे-पीछे रासायनिक खाद कारखानों के साथ मिल कर काम करते हैं। इस प्रक्रिया से काम करने वाला संयंत्र दुनिया में सिर्फ एक और है। यह फ्रांस के माझिंगरबे नामक स्थान में है। उसका निर्माण भी गेलप्रा ने किया था। उसने 1968 से बस 1972 तक ही काम किया। इस प्रकार तूतिकोरिन और तलचर के संयंत्र एक विवादास्पद पद्धति से बनाए गए हैं।

दुनिया का अधिकांश भारी पानी अमेरिका और केनडा में हाइड्रोजन सल्फाइड/पानी की अदला-बदली वाली प्रक्रिया से तैयार होता है। पर अमेरिका और केनडा उसे बनाने का तरीका भारत को देना नहीं चाहते थे। इसलिए देश के इंजीनियरों को उस प्रक्रिया की रूपरेखा खुद ही बना लेनी पड़ी। अग्रगामी परियोजना बनाकर छोटी मात्रा में उसके निर्माण का तजुर्बा लिए बगैर ही कोटा में 100 टन क्षमता का संयंत्र बना लिया गया।

नांगल के बहुत ही छोटे-से संयंत्र को छोड़कर भारी पानी के बाकी सभी संयंत्र संकट में है। डिजाइन में गलती रह जाने के कारण वड़ोदरा के संयंत्र में 1977 में परीक्षण के समय विस्फोट हो गया था और उसे फिर 1981 तक खाली रखना पड़ा। फिलहाल संयंत्र ठीक से काम कर रहा है। लेकिन क्षमता का आधे से कम ही काम हो रहा है। कोटा के संयंत्र में व्यावसायिक स्तर पर काम अभी शुरू हुए चार वर्ष ही हुए हैं, फिर भी समस्याएं आने लगी हैं। तलचर के संयंत्र में दो साल की देरी की गई क्योंकि उसमें दो एक्सचेंज टावर नहीं थे। बताया जाता है कि 1975 में पश्चिम जर्मनी से जहाज द्वारा लाते समय पुर्तगाल के पास समुद्र में वे कहीं खो गए। 66 करोड़ रुपए के इस संयंत्र का निर्माण 1972 में शुरू हुआ था। तूतिकोरिन के संयंत्र ने 1978 और 1979 में कुछ हफ्ते ही काम किया, फिर तकनीकी खराबी तथा श्रमिकों के झगड़े के कारण बंद हो गया। आयोग के अनुसार 1983-84 में उसने एक तिहाई क्षमता तक काम किया और अब बिल्कुल अच्छा काम कर रहा है। भारी पानी के इन चार बड़े संयंत्रों की कुल क्षमता सालाना 301.2 टन की होते हुए भी इसने सालाना 14 टन क्षमता के छोटे-से नांगल संयंत्र से भी कम काम किया।

परमाणु बिजली संयंत्रों से पैदा होने वाला भयानक जहरीला रेडियमधर्मी कचरा परमाणु उद्योग के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बना हुआ है। उस कचरे को न केवल प्लूटोनियम से अलग करते समय बेहद सावधानी के साथ संभालना पड़ता है, बल्कि हजारों साल तक उसके भंडारण का इंतजाम भी करना पड़ता है।
परमाणु बिजली संयंत्रों से पैदा होने वाला भयानक जहरीला रेडियमधर्मी कचरा परमाणु उद्योग के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बना हुआ है। उस कचरे को न केवल प्लूटोनियम से अलग करते समय बेहद सावधानी के साथ संभालना पड़ता है, बल्कि हजारों साल तक उसके भंडारण का इंतजाम भी करना पड़ता है। अनेक लोगों का मानना है कि इस समस्या का कोई भी समाधान नहीं है।

आयोग की योजना कचरे के उपचार वाले संयंत्रों को परमाणु बिजली घरों के पास ही बनाने की है ताकि इस खतरनाक चीज को दूर-दूर तक ले जाने का काम कम ही हो सके।

एक बार प्लूटोनियम को अलग कर लेने के बाद परमाणु आयोग की योजना इस अत्यंत जहरीले कचरे को कांच में बदल कर एक ही जगह स्थिर कर देने की है। इस कांच बने कचरे को विशेष प्रकार के शीतगृह में 20 साल तक रखा जाएगा। फिर अंत में उसे किसी ऐसी जगह रखना होगा जहां पानी, भूचाल, युद्ध या तोड़-फोड़ की कोई भी घटना हजारों साल तक उसे छेड़ न सके। पर ऐसी जगह मिलना मुश्किल है। हिमालय, सिंधु-गंगा के कछार, थार रेगिस्तान और दक्षिणी पठार आदि भूजल की अधिकता या भूचाल की संभावना जैसे कारणों के आधार पर रद्द किए जा चुके हैं। लेकिन परमाणु ऊर्जा आयोग के वैज्ञानिक मानते हैं कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र और उससे लगे आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कुछ जिलों का कंकरीला पठार इसके लिए उपयोगी हो सकता है। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के इलाकों की भी जांच हो रही है। बंगलूर के पास कोलार की खदान के काम में न लाए गए हिस्सों में एक प्रायोगिक शोध केंद्र भी स्थापित किया गया है। इस कचरे के स्थायी निपटान के लिए एक भंडार घर तैयार करने की बात भी सोची जा रही है।

निरापद कोई जगह मिल भी गई तो जरा सोचिए कि वहां हजारों साल तक उसकी सुरक्षा करने के लिए देश को किस तरह के राजनैतिक, सैनिक ढांचे की जरूरत पड़ेगी! क्या ढांचा हमारे लोकतंत्र में निभ पाएगा?

फिर भी अगर देश की अगली शताब्दी में परमाणु बिजली की पूरी आवश्यकता का एक समुचित हिस्सा भी ठीक से उत्पादन करना है, जो दसियों हजार मेगावाट होगा, तो गैर-प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन वाला पद्धति को अपनाना ही होगा।

  लेखक: अनिल अग्रवाल और प्रफुल्ल बिदवई  

 सितम्बर-अक्टूबर 2008, गांधी मार्ग






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