सत्तावर्ग के परमाणु-किले पर जनसंघर्षों की दस्तक

कुमार सुन्दरम 
जनसत्ता में 29 सितम्बर 2011 को प्रकाशित 

अमेरिका के साथ परमाणु-करार के दौरान जहाँ देश के सत्तावर्ग ने न सिर्फ़ इसकी चौतरफ़ा हुई आलोचनाओं को दरकिनार किया बल्कि सांसदों की सरेआम खरीद-फ़रोख्त की, वहीं अब इस करार से उपजे दम्भी और विनाशकारी परमाणु सपने को जमीनी जनसंघर्शों की अदालत में जबरदस्त चुनौती मिल रही है। इस हफ़्ते तमिलनाडु में जयललिता को कूडनकुलम परमाणु बिजलीघर पर प्रधानमंत्री से वहाँ चल रहे निर्माण कार्य को लोगों की आशंकाओं के निवारण तक रोकने की मांग करनी पड़ी है. मुख्यमन्त्री की यह पहल सूबे में इस महीने चले जुझारू जनांदोलन के दबाव में आई है, जिसमें १२५ लोग कुल बारह दिनों तक भूख-हड़ताल पर बैठे रहे और पंद्रह हज़ार से ज़्यादा लोगों ने उनके समर्थन में शिरकत की. आंदोलन की शुरुआत में जयललिता परमाणु-विरोधियों को दिग्भ्रमित और परमाणु-परियोजना को पूर्णतः सुरक्षित बताती रहीं.

लेकिन कूडनकुलम के आम लोगों को परमाणु-बिजली और इसपर केन्द्रित विकास की सरकारी परिभाषा को लेकर कोई भ्रम नहीं है. अस्सी के दशक में इस परियोजना की शुरुआत से ही तमिलनाडु के किसानों, मछुआरा समुदाय और आम लोगों ने इसका विरोध किया है. १९८९ में इस इलाके के दस हज़ार मछुआरों ने कन्याकुमारी में प्रदर्शन किया था जिसपर पुलिस ने गोलियां चलाई थीं और बर्बर दमन किया था. सोवियत रूस के पतन के बाद ऐसा लगा कि यह परियोजना अपनी मौत मर जाएगी लेकिन जब १९९८ में इसे पुनः शुरु किया गया तो स्थानीय जनता का विरोध फिर उठ खड़ा हुआ. इस बार आन्दोलन के उभार में तकनीकी दृष्टि से उन्नत माने जाने वाले जापान की फ़ुकुशिमा त्रासदी में दिखे विनाश और असहायता के अनुभव का भी योगदान रहा है. लेकिन देश के परमाणु-अधिष्ठान से लेकर केन्द्र और राज्य सरकार और मीडिया की तरफ़ से जिस तरह कूडनकुलम आंदोलन को फ़ुकुशिमा से अचानक उपजी अतिशय प्रतिक्रिया बताया जा रहा है, वह पूरी तरह गलत है. कूडनकुलम के लोगों ने १९८९ में ही न सिर्फ़ सरकार को इस परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करवाने पर मजबूर किया, जबकि उस जमाने में ऐसी पर्यावरणीय मंजूरियों की कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं थी, बल्कि सरकार द्वारा आधे मन से तैयार उक्त रिपोर्ट का विधिवत अध्ययन और खंडन भी किया था.

परमाणु-विरोधी आंदोलन जमीनी स्तर पर उन सारे सरोकारों को एकजुट करने की सम्भावना रखता है जिनको आजकल अलग-अलग देखने का चलन है. इन सवालों के तत्कालनिर्णायक राजनीतिक हल की तलाश भी इस आंदोलन को है. ऐसे मेंयह मुद्दा अगर सबको एक कर पाए और व्यापक सामाजिक बदलाव के टूते हुए तार जोड़ पाएइसके लिए बड़े स्तर पर पहलकदमी और संघर्ष की ज़रूरत है. 

कूडनकुलम बिजलीघर रूस की मदद से बनाया जा रहा है. फ़ुकुशिमा के बाद रूस के परमाणु से जुड़े विभागों ने अपने देश के रिएक्टरों की सुरक्षा पर जो साझा रिपोर्ट रूसी राष्ट्रपति को दी है, उस रिपोर्ट में यह साफ़ कहा गया है कि रूस के परमाणु-उद्योग और उनके रिएक्टर डिजाइनों में फ़ुकुशिमा के स्तर की किसी दुर्घटना से निबटने की तैयारी का भारी अभाव है. इस रिपोर्ट में राष्ट्रपति को कुल ३१ गम्भीर कमियों की जानकारी दी गई है और VVER डिज़ाइन, जो कूडनकुलम में लगाई जा रही है, के भी खतरों को चिन्हित किया गया है. लेकिन इसके बावजूद हमारी सरकार और उसके विभागीय वैग्यानिक कूडनकुलम सहित देश के तमाम परमाणु-संयंत्रों को सुरक्षित बताते फिर रहे हैं. हमारे देश में परमाणु-संयंत्रों की सुरक्षा की निगरानी और नियमन के लिए अब तक कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है और परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड (AERB) खुद परमाणु ऊर्जा विभाग के मातहत ही काम करता आया है. फ़ुकुशिमा-दुर्घटना के बाद सरकार ने परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा-जाँच और एक स्वायत्त सुरक्षा नियमन इकाई के गठन की घोषणा की थी, लेकिन इसके पीछे वस्तुतः कोई ईमानदारी नहीं बल्कि किसी तरह लोगों को शांत रखने की कोशिश ही रही है, ताकि परमाणु-कम्पनियों का भारी मुनाफ़े का सपना खटाई में नहीं पड़े. इस महीने कैबिनेट की मंजूरी के बाद लोकसभा में जारी परमाणु सुरक्षा एवं नियमन प्राधिकरण कानून की आलोचना खुद AERB के प्रमुख रह चुके डॉ. ए. गोपालकृष्णन ने की है और कहा है कि इस प्राधिकरण के अधिकार AERB से भी कम होंगे और इस पर सरकार का सीधा अंकुश बना रहेगा. कई जनसंगठनो और लोकतांत्रिक-झुकाव वाले विशेषग्यों ने भी इस प्रस्तावित कानून की आलोचना की है. फ़ुकुशिमा के बाद देश के परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा की हुई सरकारी समीक्षा का भी कमोबेश यही हाल है. किसी स्वतन्त्र जांच की बजाय परमाणु बिजली उत्पादन के लिए जिम्मेवार सरकारी कम्पनी परमाणु पावर कार्पोरेशन के स्तर पर ही जाँच को निपटा कर देश को भरोसा दिलाया गया है कि हमारे यहां सब ठीक है. इस सन्दर्भ में डॉ. ए. गोपालकृष्णन ने अपनी अध्यक्षता के समय 1995 में जारी सुरक्षा रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें विशद पड़ताल के बाद परमाणु बिजलीघरों से जुड़े कुल १३४ गम्भीर खतरों की पहचान की गई थी और उन पर तत्काल कार्रवाई की मांग की गई थी. लेकिन सरकार ने कुछ करने की बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र उक्त रिपोर्ट को ही गोपनीय करार दे दिया. प्रस्तावित परमाणु सुरक्षा प्राधिकरण बिल के तहत भी सरकार अपनी मर्ज़ी से किसी भी संयंत्र को राष्ट्रीय सुरक्षा के नामपर इस कानून की जद से बाहर कर सकती है, जबकि भारत-अमेरिका परमाणु करार के बाद देश के सैन्य और नागरिक परमाणु इकाईयों का साफ़ बँटवारा किया जा चुका है. साफ़ है कि परमाणु प्रतिष्ठान अबतक राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बजट से लेकर पर्यावरण और जन-स्वास्थ्य तक हर मामले में जिस तरह जवाबदेही से ऊपर होने की हैसियत का मज़ा उठाता आया है, अब भी उससे अलग नहीं होना चाहता.
कूडनकुलम परियोजना पर लोगों की आपत्ति सिर्फ़ सुरक्षा को लेकर नहीं है. आन्दोलनकारियों ने इस परियोजना के हर पहलू पर गम्भीर सवाल उठाए हैं. 
कूडनकुलम परियोजना पर लोगों की आपत्ति सिर्फ़ सुरक्षा को लेकर नहीं है. आन्दोलनकारियों ने इस परियोजना के हर पहलू पर गम्भीर सवाल उठाए हैं. इलाके के लोगों में विस्थापन का भय बना हुआ है. 1991 के एक आदेश के मुताबिक संयंत्र के ढाई से लेकर पांच किलोमीटर तक के क्षेत्र को स्टरलाइजेशन ज़ोन के बतौर चिन्हित किया गया है जबकि राज्य सरकार लोगों को मौखिक आश्वासन देती रही है कि उनका विस्थापन नहीं किया जाएगा. रिएक्टरों की तीस किलोमीटर की परिधि में दस लाख से ज़्यादा की सघन आबादी है जो कि खुद AERB के मानकों से कई गुना ज़्यादा है. कूडनकुलम में प्रस्तावित रिएक्टर बिना किसी दुर्घटना के भी, सामान्य तौर पर आयोडीन-१३४, १३२, १३३, सीज़ियम-१३४, स्ट्रॉंशियम, ट्रीशियम, टेलीरियम जैसे भयावह जहर उगलते रहते हैं जिससे इलाके की हवा, फसलों, मवेशियों, समुद्र तथा भूजल में पर भारी खतरा मंदरा रहा है. संयंत्र में काम कर रहे मजदूरों, ठेकेदारों और इंजीनियरों ने खुद ही पिछले सालों में निर्माण सामग्री की गुणवत्ता और दिजाइण को लेकर सवाल उठाए हैं. कूडनकुलम में कुल छह रिएक्टर लगाने की योजना है और कुछ महीने पहले तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने रिएक्टर नम्बर ३-६, जो अभी योजनाधीन हैं, को तटवर्त्तीय नियमन क्षेथ के तहत आने और उनको मंजूरी नहीन देने की बात की थी. आन्दोलनकारियों ने सवाल उठाया है कि उक्त आपत्ति रिएक्टर संख्या १ और २ पर भी तो लागू होती है. इन रिएक्टरों को लेकर परमाणु दायित्व के दावे का मामला भी अभी तक सुलझा नहीं है. सरकार ने परमाणु दायित्व विधेयक संसद में पास कर चुकी है लेकिन रूसी सरकार का कहना है कि 2008 में हुए एक गुप्त समझौते के तहत भारत के रूस को खूदनकुलम के मामले में दायित्व से मुक्त रखा है और वह समझौता ही वैध होगा भारत का परमाणू दायित्व कानून नहीं. कूडनकुलम परमाणु परियोजना के आर्थिक पक्ष को लेकर भी गम्भीर सवाल उठाए गए हैं. 1988 में जब परियोजना की शुरुआत हुई थी तो इसका खर्च कुल छह हज़ार करोड आँका गया था. १९९८ में यह आकलन बढ़कर १५,५०० करोड़ हो गया और २००१ में १३,१७१ करोड़, जिसमें ६,७७५ करोड़ भारत सरकार को देना था और बाकी रूस से चार प्रतिशत की ब्याज पर कर्ज. अब दस साल के बाद इस परियोजना का वास्तविक खर्च कितना है, इसकी जानकारी लोगों को देने की कोई ज़रूरत सरकार ने उचित नहीं समझी है.

भारत उन गिने-चुने मुल्कों में है जिन्होंने फ़ुकुशिमा के बाद भी अपने परमाणु कार्यक्रम यथावत जारी रखे हैं. जर्मनी, स्वीडन, इटली, स्विट्ज़रलैण्ड जैसे कई देशों ने अपने परमाणु उद्योग को बंद करने की घोषणा कर दी है. जर्मनी की एक बड़ी ऊर्जा कम्पनी सीमेन्स ने इसी महीने परमाणु-व्यवसाय से अपनी सारी पूंजी खींच ली है. इस फैसले का असर रूस के रोज़ैटम से लेकर फांस की अरेवा कम्पनी पर भी पड़ेगा जो जैतापुर में दुनिया के सबसे बड़े रिएक्टर लगाने के आर्डर के बूते अपनी खोई आर्थिक रीढ़ वापिस पाने का सपना देख रही है. परमाणु तकनीक के अपने अनिवार्य खतरे हैं जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. फ़ुकुशिमा के बाद के महीनों में कई अन्य दुर्घटनाएं दुनिया भर में हुई हैं - फ्रांस के मारकोल में इसी महीने हुए विस्फ़ोट में एक व्यक्ति की मौत हुई और ढेरों विकिरण फैलने की खबर है. जून में अमेरिका में एक तरफ़ जहां नेब्रास्का में फ़ोर्ट कॉल्होन रिएक्टर बाढ़ की चपेट में था वहीं न्यू मेक्सिको प्रांत के जंगल में लगी भीषण आग लॉस अलामॉस परमाणु अनुसंधानकेंद्र को घेर चुकी थी जहां सैकड़ों टन परमाणु कचरा सालों से प्लास्टिक की टेंटों में पड़ा था.

जनांदोलनों की दस्तक

कूडनकुलम में दो दशक से अधिक समय से चल रहे इस आन्दोलन ने हमें दिखाया है कि विशेशग्यों की बपौती समझे जाने वाले विषयों पर आमलोग ने कैसे दखल दी है और विकास, ऊर्जा, और पर्यावरण के वैकल्पिक प्रतिमानों को अपने जीवनानुभवों के बर-अक्स गढ़ा है. यह आन्दोलन हज़ारों लोगों की सक्रिय भागीदारी के बावजूद पूर्णतया अहिन्सक रहा है जबकि सरकार झूठ और दमन का सहारा लेती रही है. देश के अन्य हिस्सों में अणुबिजली प्रकल्पों को लेकर चल रहे आंदोलनों में भी यही बात देखने को मिल रही है. जैतापुर में अवैध और झूठे मुकदमों में गिरफ़्तारियाँ, पुलिस फ़ायरिंग, कार्यकर्त्ताओं को व्यक्तिगत धमकी व प्रलोभन ही सरकार को सुहाते हैं. हरियाणा के फतेहाबाद जिले में प्रस्तावित गोरखपुर परमाणु ऊर्जा परियोजना का तीस गाँवों की पंचायतों ने आमराय से विरोध किया है और वहाँ के किसान पिछले चौदह महीनों से जिला-मुख्यालय के सामने धरने पर बैठे हैं. बिना सुनवाई लगातार जारी इस संघर्ष ने तीन किसानों की जान ले ली है, लेकिन लोगों के हौसले बुलंद हैं. फतेहाबाद में उस भाखड़ा नहर के आसरे परमाणु रिएक्टर लगाए जा रहे हैं, जो इस इलाके के किसानों की खुशहाली का स्रोत है. किसी दुर्घटना की हालत में एक नहर का पानी रिएक्टरों को बुझा पाएगा, यह बात भी लोगों के गले नहीं उतरती. ऐसे ही जुझारू आन्दोलन मध्य प्रदेश के चुटका, गुजरात के भावनगर स्थित मीठीविर्डी और आन्ध्र के कोवाडा में भी चल रहे हैं. परमाणु-तकनीक से जुड़ी संवेदनशीलता अपने आसपास आमजन से कटे, निहायत गोपनीय और अलोकतांत्रिक नीति-तंत्र को जन्म देती है. परमाणु-उद्योग के समर्थन में नागरिक और मानवीय अधिकारों का दमन उस नेहरूवियन सपने पर सवाल खड़ा करता है जिसमें आज़ाद भारत में उच्च तकनीक को न सिर्फ़ देश के आधारभूत ढाँचे की रीढ़ होना था, बल्कि इस तकनीकी विकास से समाज में भी आधुनिकता, लोकतंत्र और सहिष्णुता जैसे गुणों का संचार होना था. आज जब उत्तर कोरिया और ईरान जैसे घोर अलोकतांत्रिक देश भी परमाणु-तकनीक पर दावा कर चुके हैं, हमें तकनीक और व्यापक समाज  के संबंधों की कोरी आधुनिकतावादी समझ पर पुनर्विचार करना चाहिए.

परमाणु विरोधी जनांदोलन विकास की बुनियादी समझ को लेकर सबसे तीखे और दूरगामी सवाल खड़े करते हैं. परमाणु दुर्घटना हो या इन परियोजनाओं हेतु होने वाला विस्थापन, इसकी मार भी सबसे अधिक समाज के पिछड़े तबकों पर ही पड़ने वाली है. परमाणु प्रतिष्ठान ने तकनीकी उच्चता के तर्क से अपनी संस्थाओं और उनके कामधाम को जानबूजह कर गूढ़ बना रखा है और अपने परिसरों में आरक्षण मंजूर नहीं किया है. पर्यावरण और जन-स्वास्थ्य के प्रति जवाबदेही, सरकारी नीति में पारदर्शिता, सेहत और सुरक्षा के मजदूरों के मूलभूत अधिकार, ऊर्जा और बिजली के अंधाधुध उपभोग के खतरों जैसे कई बड़े सवालों से खुद को जोड़ने की ज़रूरत जितनी शिद्दत से परमाणु-विरोधी आंदोलन करता है, उतनी व्यापकता शायद ही किसी अन्य आंदोलन की व्यावहारिक ज़रूरत हो. शायद यही वजह है कि हर विरोध को ताकपर रखने वाली सरकार को इन जनांदोलनों के सामने झुकना पड़ रहा है. कूडनकुलम की जीत तो पूरी तरह से जन-दबाव की जीत है. पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने से पहले ही ममता बनर्जी ने हरिपुर परमाणु बिजली परियोजना को निरस्त करने का वादा किया था और इस बीच परमाणु मुद्दे को लेकर मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के रुख में भी बदलाव आया है. जैतापुर से लेकर हरियाणा के फतेहाबाद तक माकपा परमाणु-विरोधी आंदोलन में शरीक है. लेकिन यह कांग्रेस के परमाणु-डील को गलत साबित करने के तर्क से निकला हुआ विरोध है या माकपा ने परमाणु-बिजली, औद्योगीकरण और विकास पर वैकल्पिक सोच की ज़मीनी जरूरत को सही में समझा है, इसकी ताकीद होनी अभी बाकी है, क्योंकि परमाणु डील के विरोध में माकपा का एक तर्क यही था कि इससे देसी परमाणु-उद्योग और उसके तकनीकी विकास को नुकसान होगा.

परमाणु-विरोधी आंदोलन जमीनी स्तर पर उन सारे सरोकारों को एकजुट करने की सम्भावना रखता है जिनको आजकल अलग-अलग देखने का चलन है. इन सवालों के तत्काल, निर्णायक राजनीतिक हल की तलाश भी इस आंदोलन को है. ऐसे में, यह मुद्दा अगर सबको एक कर पाए और व्यापक सामाजिक बदलाव के टूते हुए तार जोड़ पाए, इसके लिए बड़े स्तर पर पहलकदमी और संघर्ष की ज़रूरत है. 

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